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योग की पुकार
"योग परम शक्तिशाली विश्व संस्कृति के रूप में प्रकट होगा और विश्व की घटनाओं को निर्देश देगा." - स्वामी सत्यानन्द सरस्वती
             
इसे जानने के लिए योगाभ्यास करना पड़ता है | योग के सन्दर्भ में साधना की जितनी पद्धातियाँ हैं कहीं उससे अधिक योग की परिभाषाएँ हैं | वस्तुतः योग जीने की एक कला है |
इसलिए श्रीकृष्ण ने कहा है - "योगः कर्मषु कौशलम" अर्थात् कर्म की कुशलता का नाम ही योग है | योग ही चेतना का वह विज्ञान है जिसके ज्ञान से त्रिविध सुखों का अनावरण करना संभव है |
यदि दूसरी भाषा में कहा जाय तो योग मूल जीवन तक पहुँचने का एक साधन है | आशय स्पष्ट है कि हम जिसे जीवन समझते हैं वास्तव में वह जीवन है ही नहीं | कदाचित
मानवीय दिनचर्या को जीवन की संज्ञा नहीं दी जा सकती है क्योंकि यह बन्धनों से युक्त है | निस्संदेह जीवन तो वह हैं जो बन्धनों से मुक्त हो | कदाचित ऐसे जीवन की कल्पना
करना मानव मन-मष्तिष्क की सीमा से परे है | इस विषय में मानव मन भौतकीय शरीर के अंत के बाहर चला जाता है परन्तु योग एवं योगियों के मानस पटल पर भौतकीय
शरीर ही योग का साधन है और इसी भौतकीय व् लौकिक शरीर में ही योगी मन अलौकिक व् उन्मुक्त रहता है | निश्चय ही उपर्युक्त दो वाक्यों को समझना किसी बिरले के लिए
संभव है परन्तु इसके लिए अभ्यास करना सर्वजन्य सुलभ है |
             
परन्तु दुर्भाग्यवश आर्यावर्त की यह दुर्लभ संस्कृति भारतवासियों ने अपनी थाली से अपने ही हाथों से निकलकर फेंक दिया है |
आश्चर्य एवं सौभाग्य की बात यह है कि जो पाश्चात्य संस्कृति यौगिक क्रियाओं का घनघोर विरोधी हुआ करता था वही आज के इस आधुनिक परिवेश में भी
भारतवर्ष के यौगिक कला को भारतवासियों से अधिक महत्त्व दे रहा है | इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि संपूर्ण विश्व में योग-दिवस पाश्चात्य सभ्यता से ही संचालित हो रही है ,
जो कि भारतीय संस्कृति से संचालित होनी थी | निश्चय ही हम भारतवासी को इससे कदापि कोई खेद नहीं है क्योंकि हमारे ऋषियों ने "कृण्वन्तो विश्वमार्यम" के संकल्प को
शिरोधार्य किया है , इसी संकल्प का परीणाम है की आज संपूर्ण विश्व आर्यावर्त की भाषा बोल रहा है | परन्तु यदि यह पताका भारतवर्ष के द्वारा लह्र्या गया होता तो निश्चय ही
आज का मंजर कुछ और होता |
             
अतः भारतवर्ष के भावी योगियों अब भी बागडोर तुम्हारे हाथों में है , उठो - जागो और इस बागडोर को अपने हाथों से पूरी तरह निकल जाने से पहले कसकर
पकड़ लो | अब तक तुमने पाश्चात्य सभ्यता को पकड़ने के चक्कर में अपनी संस्कृति को ढीला छोड़ दिया था परिणामस्वरूप उलटी गंगा बह रही है | खैर कोई बात नहीं यदि तुम
पाश्चात्य सभ्यता को ही पकरने के आदि हो चुके हो तो देखो, आँखें फाड़कर देखो आज पाश्चात्य सभ्यता भारतीय यौगिक क्रियाओं के रंगों में रंगते जा रहा है | यह रंग तुम्हारा है,
तुम्हारे ही रंगों से तुम्हारे ही कपडों को , तुम्हारे ही शारीर को भिगो रहा है | अब देर मत करो , उठो जागो और अपने संपत्ति की रक्षा और पूर्ण उपभोग करो | यह यौगिक संपत्ति, यह यौगिक धन
तुम्हारा है , इसका भरपूर उपभोग करो , अब भी कुछ नहीं बिगरा है , यदि अब भी तुम नहीं जगे , यदि अब भी तुम नहीं संभले तो तुम भली भांति जानते हो की धन की तीन गति होती है -
"धर्म, भोग और नाश | इसलिए उठो-जागो और अपने यौगिक धन का भोग करो , धर्म करो और इसे नाश होने से बचा लो | यह तो मात्र कहने को है कि धन का नाश हो जायेगा , वस्तुतः धन का नहीं
तुम्हारा ही नाश होता है , तुम ही नाशवान हो नश्वर हो परन्तु , जब तुम योग को अपना लक्ष्य और जीवन बना लेते हो तो तुम नाशवान से अविनाशी हो जाते हो , जब तुम योग को अपना लक्ष्य और जीवन बना लेते हो तो तुम
नश्वर से ईश्वर हो जाते हो | अब क्या ? उठो-जागो और ईश्वरत्व को प्राप्त करो | स्वामी विवेकानन्द चिल्ला-चिल्लाकर कहते थे - उठो, जागो और तबतक मत रूको जबतक तुम्हें अपने लक्ष्य की प्राप्ति न हो जाए |
- स्फोटाचार्य
दो शब्द
"आत्मस्वरूप, हरि ॐ
             
आज हमलोग जिस विषम परिश्थितियों का सामना कर रहे हैं, उस स्थिति को "योग जीवन शैली" के आधार पर सहज, सरल एवं आनंददायक बनाने के लिए एक छोटा प्रयास "सत्यम योग संस्कृति मिशन" के माध्यम से योग के वैज्ञानिक पक्ष तथा शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन एवं अध्यात्म के क्षेत्र में अनुपम प्रयोग विद्यार्थियों के शैक्षणिक विकास, स्वस्थ जीवन शैली एवं स्वाबलंबन के अवसर प्रदान कर सेवा का
व्रत मिशन सेवाभावी साधकों ने लिया है| आप सदस्यता ग्रहण कर लोकमंगल यज्ञ में अपना सहयोग प्रदान कर हमें संबल प्रदान करेंगे ऐसा विश्वास है|
             
"अपने मन को किसी उच्च आदर्श के प्रति समर्पित करना ही मन को नियंत्रण में लाने का एकमात्र उपाय है| दूसरों की सेवा से मन आनंदित होता है|
             
योग सभी प्रकार के कष्टों का निवारण करने में सक्षम है| आज मनुष्य अशांत है एवं शारीरिक-मानसिक विकारों से दग्ध है| कहा भी गया है कि "अशान्तस्य कुतः सुखं" अशांत व्यक्तियों को सुख कहाँ से
मिलेगा | शान्ति के लिए भी एवं विभिन्न कष्टों से मुक्ति पाने हेतु योग साधना जीवन शैली का प्रावधान हमारे ऋषियों ने किया है| योग की आवश्यकता उतनी ही बढ़ती जा रही है| विशेष कर जिनकी जीवन शैली
आज के द्रुतगामी, विज्ञान्प्रधान, भोगवादी समाज में जीते हुए गड़बड़ा गई है, कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो कम समय में ही खूब लाभ देने में सक्षम है| सत्यम योग संस्कृति ने अपनी अल्प अवधि में ही ढेर साड़ी उपलब्धियां
अपनी झोली में डाल ली है| योग एवं मानवी चेतना विज्ञान विभाग ने परंपरागत योग के साथ व्यवहारिक प्रयोगों को जोड़कर आसन, प्राणायाम, मुद्राओं आदि के कुछ मिश्रित प्रयोग ऐसे किये गए हैं जिससे ढेरों व्यक्ति
लाभान्वित हुए हैं|
             
हमारे छात्र-छात्राएँ योग जीवन शैली को अपनाकर औरों को प्रेरणा प्रदान कर रहे हैं| शारीर मन व् अंतःकरण की समग्र स्वस्थता ही इस युग की चिकित्सा पद्धति को देनी होगी|
             
हमारा प्रयास होगा कि योग जीवन शैली का प्रशिक्षण जन-जन को प्रदान करने हेतु गाँव-गाँव में "योग संस्कार केंद्र" का सञ्चालन प्रशिक्षित योग अनुदेशकों के माध्यम से हो तथा प्रातः से रात्रि तक व्यस्त जीवन में
सुविधानुसार योग के अल्प अभ्यास को जीवन शैली में ढालकर आनंद का अनुभव कर सकें| जीवन के विकास एवं पूर्णता के लिए अतिउपयोगी सिद्ध होगा|
             
क्या आप योग शिक्षक प्रशिक्षण प्राप्त कर सेवा स्वाबलंबन के क्षेत्र में आना चाहते हैं? यदि हाँ तो संपर्क करें|
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